विभिन्न प्रदेश मे रहनेवाले कायस्थ का संक्षिप्त वर्णन
बँगाल - बँगाल मे प्रधानत: चार श्रेणीयो के कायस्थो का वास है। (क) उत्तर राढीय् (ख) दक्षिण राढीय् (ग) बँगज और (घ) वारेन्द्र । ये भेद कायस्थ के कारण हैँ | युक्त प्रदेश मे जो विभिन्न प्रकार के कायस्थ मिलते हैँ उनमे से श्रिवास्तव्, शकसेन्, सुर्यध्वज्, अम्बष्ठ, गौड आदि कै श्रेणी के कायस्थ बँगाल पहुचे थे। 'सुतरा" कुलग्रन्थ के अनुसार बसु, घो, मित्र, दत्त्, सिँह् प्रभृति उपाधिधारी कायस्थ् अपने को क्षत्रिय धर्म के अनुसार ठहराते थे। (बँग के जातिय इतिहास 'राजन्यकाण्ड्)
मिथिला:- कर्नाट्क वँशिय महाराज नान्यदेव ई.11 शताब्दी को मिथिला पदार्पण करते समय अपने साथ निज अमात्य कायस्थ कुल भूषण श्रिधर तथा उनके बारह सम्बन्धियो को लाये थे । नान्य देव के समस्त मिथिला पर आधिपत्य होने के बाद उनके अमात्य श्रीधर ने अपने बहुत से बन्धु बान्धव को चार चरन मे मिथिला बुलाये । प्रथम बार श्रीधर एवँ उनके बारह कुटुंब, दुसरी बार बीस्, तीसरी बार तीस और चौथी बार अवशिश्ट् कायस्थो का मिथिला आगमन हुआ। मिथिला मे बस जाने के कारण उक्त्त कर्ण कायस्थ नाम से प्रसिद्ध हुए। आजकल के मैथिल पंजीकार का कहना है की महाराज नान्य देव के घराने से लेकर ओइनवार घराने के मध्य समय तक कर्नाटक के मिथिलावासि होनेवाले मिथिला के कायस्थ 'ठाकुर्' कह्लाते थे। बाद मे ओइनवार के वन्शजोँ को ब्राह्मण के सदृश पदवी हीक नही लगा । उन्होने नाना प्रकार से विचार कर ठाकुर कि पदवी को अनेकानेक पदवी मे विभक्त किया । मैथिल कायस्थ मे दास, दत्त, देव्, कण्ठ्, निधि, मल्लिक्, लाभ्, चौध्र्री, अंग आदि पदवि प्रचलित है। इनका कर्मकाण्ड मैथिल ब्राह्मणों कि तरह होत है। किन्तु विवाह प्रजापत्य होता है।
उडीसा:- पुरी कि श्रि मन्दिरस्थ मादलापंजी और अन्यान्य विवरण से पता चलता है कि उडीसा के कायस्थ जो अपने को कर्ण् कायस्थ बतलाते हैँ, मगध से गँगवँशीय राजाओँ के अभ्युदय से बहुत पहले उडीसा जाकर पुरव्तन राजाओ कि अधीन कर्म स्वीकार किया था। उडीसा के कायस्थ अपने को तीन खर्, पुर्, और व्याउ भेद से विभक्त करते हैँ। आठ गढ राज वन्शिय, खर्, खुर्दा के दीवान वन्शीय पुर और अन्यन्य अपने को व्याउ कहते है। उत्कलिय करणो मे कुछ चैतन्य भक्त है त्5ओ उछ जगन्नाथ के अति बडी समप्रदाय् भक्त है । तकलिय कर्ण महान्ति, दास्, नाथ्, मल्ल्, पटनायक, कानुनगो, और सभापत प्रभृति उपाधि से भूषित है।
मध्य प्रदेश्:- मध्य प्रदेश के कायस्थ अपने आपको मालब के कायस्थ कहते है। ऐसा कहा जाता है कि मुसलमान नवाबो के आगमन काल मे ब्राह्मणों ने स्थान छोर दिया था उस समय मुसलमानो ने कायस्थो को फारसी भाषा मे कार्य कुशल एवँ चतुर देखकर उन्हे कानुनगो का पद प्रदान किया। कायस्थ लोग अपना परिचय मसिजीवी क्षत्रिय से देते है । दशम या ग्यारहवे वर्ष के मध्य ही पुत्रो का मौजी सम्पन्न होता है । म्रित के उद्देश्य से ये द्वादश दिन अशौचग्रहण् करते है । उनकि सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनमे जात्यभिमान अथवा कुसन्स्कार नहि है । प्रायः सभि लोग पढे लिखे होते है ।
राजपुताना:- राजपुताना के कायस्थ प्राय: अपने आप को राजधान कहते है | बुन्दि मे माथुर और भटनागर कायस्थ विशेष रुप से पाये जाते है। राजपुताने मे अजमेरी, रामसरि और केसरि तीन श्रेणी के कायस्थ पाये जाते है। वहाँ के सभि कायस्थ अपने को क्षत्रिय बताते है।
बिहार्:- बिहारी कायस्थो मे द्वादश शाखाएँ है। बिहारी कायस्थ आज भी उपवित धारण् करते है । पटना और तिरहुत क्शेत्र मे अम्बष्ट और कर्ण शाखा के कायस्थ अधिक मिलते है । इसके बाद श्रिवस्तव का स्थान है अन्य शाखा वाले यहाँ नाम मात्र मिलते है । वाल्मीकि का तो प्राय्: नाम भी नही है । बिहारी कायस्थो मे वैष्णव , शैव्, शाक्त , कबिर पन्थि, नानकशाही प्रभृति के मिलते है। इनमे शाक्त सर्वाधिक है। भैया द्विज के दिन वे चित्रगुप्त भगवान की पुजा करते है। इसके अतिरिक्त कुछ कायस्थ वसन्त पन्चमी के दिन कलम दवात कि पुजा करते है।
मन्द्रज प्रेसिडेन्सी:- मन्द्रज प्रेसिडेन्सी के कायस्थ महाराष्ट्रीय कायस्थ के समान है। वहाँ ब्राह्मणों ने अनेक बार कायस्थो के साथ होड़ा-होड़ी की। जहाँ वेदभाष्कर सायणाचार्य जी का जन्म स्थान है । वहां राजन्य वर्ग के कायस्थो को द्विजजाति के अन्दर गिना जाता है । मन्द्राज के कायस्थों का द्वादश वर्ष से पुर्व ही उपनयन सम्पन्न हो जाता है। माता पिता व निकटिय के मरने पर बारह दिन मात्र अशौच रहता है । मन्द्राज मे कायस्थ कायस्थल के नाम से परिचित है। आज भी वह नाना स्थानो मे कुलकर्णी या कानुनगो के पद पर प्रतिष्ठित है । वे अपने को क्षत्रिय वर्नान्तर्गत बतलाते है।
गुजरात :- गुजरात मे बारह श्रेणियो के कायस्थ मे से मात्र तीन माथुर्, वाल्मीक्, और भटनागर गुजरात मे मिलते है। वे अपना समाज दुसरे हिन्दु से अलग रखते है। वाल्मीकीय कायस्थ प्रधानत्: सुरत मे पाये जाते है। ये ब्राहमणो के प्रति विशेष सम्मान प्रदर्शन नही करते है । दुसरे वैष्णवों की अपेक्षा महारात्रियो से भी न्युन भेद भाव रखते है। माथुर कायस्थ अहमदाबाद्, बरौदा, दमोइ, सुरत्, राधनपुर और नरिआद मे रहते है। करीब 100 वर्ष पुर्व ये चैत्र और आश्विन मास मे पुजा के समय माँस और देशी सुरा देवी को चढाते थे।
बँगाल - बँगाल मे प्रधानत: चार श्रेणीयो के कायस्थो का वास है। (क) उत्तर राढीय् (ख) दक्षिण राढीय् (ग) बँगज और (घ) वारेन्द्र । ये भेद कायस्थ के कारण हैँ | युक्त प्रदेश मे जो विभिन्न प्रकार के कायस्थ मिलते हैँ उनमे से श्रिवास्तव्, शकसेन्, सुर्यध्वज्, अम्बष्ठ, गौड आदि कै श्रेणी के कायस्थ बँगाल पहुचे थे। 'सुतरा" कुलग्रन्थ के अनुसार बसु, घो, मित्र, दत्त्, सिँह् प्रभृति उपाधिधारी कायस्थ् अपने को क्षत्रिय धर्म के अनुसार ठहराते थे। (बँग के जातिय इतिहास 'राजन्यकाण्ड्)
मिथिला:- कर्नाट्क वँशिय महाराज नान्यदेव ई.11 शताब्दी को मिथिला पदार्पण करते समय अपने साथ निज अमात्य कायस्थ कुल भूषण श्रिधर तथा उनके बारह सम्बन्धियो को लाये थे । नान्य देव के समस्त मिथिला पर आधिपत्य होने के बाद उनके अमात्य श्रीधर ने अपने बहुत से बन्धु बान्धव को चार चरन मे मिथिला बुलाये । प्रथम बार श्रीधर एवँ उनके बारह कुटुंब, दुसरी बार बीस्, तीसरी बार तीस और चौथी बार अवशिश्ट् कायस्थो का मिथिला आगमन हुआ। मिथिला मे बस जाने के कारण उक्त्त कर्ण कायस्थ नाम से प्रसिद्ध हुए। आजकल के मैथिल पंजीकार का कहना है की महाराज नान्य देव के घराने से लेकर ओइनवार घराने के मध्य समय तक कर्नाटक के मिथिलावासि होनेवाले मिथिला के कायस्थ 'ठाकुर्' कह्लाते थे। बाद मे ओइनवार के वन्शजोँ को ब्राह्मण के सदृश पदवी हीक नही लगा । उन्होने नाना प्रकार से विचार कर ठाकुर कि पदवी को अनेकानेक पदवी मे विभक्त किया । मैथिल कायस्थ मे दास, दत्त, देव्, कण्ठ्, निधि, मल्लिक्, लाभ्, चौध्र्री, अंग आदि पदवि प्रचलित है। इनका कर्मकाण्ड मैथिल ब्राह्मणों कि तरह होत है। किन्तु विवाह प्रजापत्य होता है।
उडीसा:- पुरी कि श्रि मन्दिरस्थ मादलापंजी और अन्यान्य विवरण से पता चलता है कि उडीसा के कायस्थ जो अपने को कर्ण् कायस्थ बतलाते हैँ, मगध से गँगवँशीय राजाओँ के अभ्युदय से बहुत पहले उडीसा जाकर पुरव्तन राजाओ कि अधीन कर्म स्वीकार किया था। उडीसा के कायस्थ अपने को तीन खर्, पुर्, और व्याउ भेद से विभक्त करते हैँ। आठ गढ राज वन्शिय, खर्, खुर्दा के दीवान वन्शीय पुर और अन्यन्य अपने को व्याउ कहते है। उत्कलिय करणो मे कुछ चैतन्य भक्त है त्5ओ उछ जगन्नाथ के अति बडी समप्रदाय् भक्त है । तकलिय कर्ण महान्ति, दास्, नाथ्, मल्ल्, पटनायक, कानुनगो, और सभापत प्रभृति उपाधि से भूषित है।
मध्य प्रदेश्:- मध्य प्रदेश के कायस्थ अपने आपको मालब के कायस्थ कहते है। ऐसा कहा जाता है कि मुसलमान नवाबो के आगमन काल मे ब्राह्मणों ने स्थान छोर दिया था उस समय मुसलमानो ने कायस्थो को फारसी भाषा मे कार्य कुशल एवँ चतुर देखकर उन्हे कानुनगो का पद प्रदान किया। कायस्थ लोग अपना परिचय मसिजीवी क्षत्रिय से देते है । दशम या ग्यारहवे वर्ष के मध्य ही पुत्रो का मौजी सम्पन्न होता है । म्रित के उद्देश्य से ये द्वादश दिन अशौचग्रहण् करते है । उनकि सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनमे जात्यभिमान अथवा कुसन्स्कार नहि है । प्रायः सभि लोग पढे लिखे होते है ।
राजपुताना:- राजपुताना के कायस्थ प्राय: अपने आप को राजधान कहते है | बुन्दि मे माथुर और भटनागर कायस्थ विशेष रुप से पाये जाते है। राजपुताने मे अजमेरी, रामसरि और केसरि तीन श्रेणी के कायस्थ पाये जाते है। वहाँ के सभि कायस्थ अपने को क्षत्रिय बताते है।
बिहार्:- बिहारी कायस्थो मे द्वादश शाखाएँ है। बिहारी कायस्थ आज भी उपवित धारण् करते है । पटना और तिरहुत क्शेत्र मे अम्बष्ट और कर्ण शाखा के कायस्थ अधिक मिलते है । इसके बाद श्रिवस्तव का स्थान है अन्य शाखा वाले यहाँ नाम मात्र मिलते है । वाल्मीकि का तो प्राय्: नाम भी नही है । बिहारी कायस्थो मे वैष्णव , शैव्, शाक्त , कबिर पन्थि, नानकशाही प्रभृति के मिलते है। इनमे शाक्त सर्वाधिक है। भैया द्विज के दिन वे चित्रगुप्त भगवान की पुजा करते है। इसके अतिरिक्त कुछ कायस्थ वसन्त पन्चमी के दिन कलम दवात कि पुजा करते है।
मन्द्रज प्रेसिडेन्सी:- मन्द्रज प्रेसिडेन्सी के कायस्थ महाराष्ट्रीय कायस्थ के समान है। वहाँ ब्राह्मणों ने अनेक बार कायस्थो के साथ होड़ा-होड़ी की। जहाँ वेदभाष्कर सायणाचार्य जी का जन्म स्थान है । वहां राजन्य वर्ग के कायस्थो को द्विजजाति के अन्दर गिना जाता है । मन्द्राज के कायस्थों का द्वादश वर्ष से पुर्व ही उपनयन सम्पन्न हो जाता है। माता पिता व निकटिय के मरने पर बारह दिन मात्र अशौच रहता है । मन्द्राज मे कायस्थ कायस्थल के नाम से परिचित है। आज भी वह नाना स्थानो मे कुलकर्णी या कानुनगो के पद पर प्रतिष्ठित है । वे अपने को क्षत्रिय वर्नान्तर्गत बतलाते है।
गुजरात :- गुजरात मे बारह श्रेणियो के कायस्थ मे से मात्र तीन माथुर्, वाल्मीक्, और भटनागर गुजरात मे मिलते है। वे अपना समाज दुसरे हिन्दु से अलग रखते है। वाल्मीकीय कायस्थ प्रधानत्: सुरत मे पाये जाते है। ये ब्राहमणो के प्रति विशेष सम्मान प्रदर्शन नही करते है । दुसरे वैष्णवों की अपेक्षा महारात्रियो से भी न्युन भेद भाव रखते है। माथुर कायस्थ अहमदाबाद्, बरौदा, दमोइ, सुरत्, राधनपुर और नरिआद मे रहते है। करीब 100 वर्ष पुर्व ये चैत्र और आश्विन मास मे पुजा के समय माँस और देशी सुरा देवी को चढाते थे।